देश की नई पीढ़ी को तो शायद यह भी याद नहीं होगा कि 1971 में पाकिस्तान युद्ध में देश का इतिहास व विश्व का भूगोल बदलने वाले कई रणबांकुरे अभी भी पाकिस्तान की जेलों में नारकीय जीवन बिता रहे हैं। उन जवानों के परिजन अपने लोगों के जिंदा होने के सबूत देते हैं, लेकिन भारत सरकार महज औपचारिकता निभाने से अधिक कुछ नहीं करती है, इसलिए उन्हें अभी न तो शहीद माना जा सकता है और न ही गुमशुदा।
जब कभी भी पाकिस्तान से हमारे मधुर संबंधों की बात आती है, तब सीमा पर घुसपैठ और आतंकवाद रोकने या फिर व्यापार बढ़ाने पर जोरशोर से चर्चा होती है, लेकिन हमारी सरकार उन 70 रणबांकुरों को पूरी तरह बिसरा चुकी है, जिन्होंने 1965 और 1971 में इस देश की एकता-अखंडता का जिम्मा उठाया था व आज तक उनका कोई अता-पता नहीं है। हर साल संसद में यह स्वीकार किया जाता रहा है कि पाकिस्तान की जेलों में हमारे 70 सैनिक लापता हैं, जिनमें से 54 जवान 1971 के युद्धबंदी हैं। इनमें से एक लापता फौजी मेजर अशोक कुमार सूरी के पिता डॉ़ आरएलएस सूरी के पास तो कई पक्के प्रमाण हैं, जो उनके बेटे के पाकिस्तानी जेल में होने की कहानी कहते हैं। डा़ सूरी को 1974 व 1975 में उनके बेटे के दो पत्र मिले, जिसमें उसने 20 अन्य भारतीय फौजी अफसरों के साथ पाकिस्तान जेल में होने की बात लिखी थी। 1979 में डा़ सूरी को किसी अनजान ने फोन करके बताया कि उनके पुत्र को पाकिस्तान में उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रदेश की किसी भूमिगत जेल में भेज दिया गया है। पाकिस्तान जेल में कई महीनों तक रहने के बाद लौटे एक भारतीय जासूस मोहन लाल भास्कर ने लापता विंग कमाडंर एचएस गिल को एक पाक जेल में देखने का दावा किया था। युद्धबंदियों की ऐसी ही ढेरों कहानियां हैं।
पाकिस्तान के मरहूम प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दिए जाने के तथ्यों पर छपी एक किताब भारतीय युद्धवीरों के पाक जेल में होने का पुख्ता सबूत मानी जा सकती है। बीबीसी संवाददाता विक्टोरिया शेफील्ड की किताब ‘भुट्टो : ट्रायल एंड एक्सीक्यूशन’ में भुट्टो को फांसी पर लटकाने से पहले कोट लखपतराय जेल लाहौर में रखे जाने का जिक्र है। किताब में लिखा है कि भुट्टो को पास की बैरक से चीख-पुकार सुनने को मिलती थीं। भुट्टो के एक वकील ने पता किया था कि वहां 1971 के भारतीय युद्धबंदी हैं, जो लगातार उत्पीड़न के कारण विक्षिप्त हो गए थे।
संयुक्त राष्ट्र के वियना समझौते में साफ जिक्र है कि युद्ध के पश्चात रेडक्रास की देखरेख में तत्काल सैनिक अपने-अपने देश भेज दिए जाएंगे। दोनों देश आपसी सहमति से किसी तीसरे देश को इस निगरानी के लिए नियुक्त कर सकते हैं। इस समझौते में सैनिक बंदियों पर क्रूरता बरतने पर कड़ी पाबंदी है, लेकिन भारत-पाक के मसले में यह कायदा-कानून कहीं दूर-दूर तक नहीं दिखा। 1972 में अतंरराष्ट्रीय रेडक्रास ने भारतीय युद्धबंदियों की तीन लिस्ट जारी करने की बात कही थी, लेकिन सिर्फ दो सूची ही जारी की गईं। करनाल के करीम बख्श और पंजाब के जागीर सिंह का पाक जेलों में लंबी बीमारी व पागलपन के कारण निधन हो गया। 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान द्वारा युद्धबंदी बनाया गया सिपाही धर्मवीर 1981 में जब वापस आया तो पता लगा कि यातनाओं के कारण उसका मानसिक संतुलन पूरी तरह बिगड़ गया है।
वियना समझौता के तहत सैनिकों के मारे जाने बाबत जो प्रमाण होने चाहिए, पाकिस्तान सरकार उनमें से एक भी प्रमाण इन 54 जवानों के लिए दे नहीं पाई है। अलबत्ता उनके पाकिस्तान सरकार ने लापता फौजियों को जेल में पहचानने के लिए एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल को आने का न्योता दिया था। पाकिस्तान के मानवाधिकर कार्यकर्ताओं को भी जेल दिखाने के नाटक किए जाते रहे, लेकिन अपनी एक गलती छुपाने के लिए पकिस्तान सरकार ने भारतीय अभिभावकों के सामने 160 साधारण भारतीय बंदी शिनाख्त के लिए पेश किए। इनमें से एक भी फौजी नहीं था। जेल अधिकारियों ने ही दबी जुबान में कह दिया कि उन्हें गलत जगह भेजा गया है।
इस लंबे अंतराल में हमारा लंबा-चौड़ा प्रशासनिक व गुप्तचर तंत्र उन वीरों की वापसी तो दूर की बात है, वे प्रमाण भी सरकारी तौर पर मुहैया नहीं करवा पाया है। ऊपर से हर साल संसद में उनके जीवित होने का दावा करके यादों में खोए उनके परिवारजनों को पुन: छटपटाने को मजबूर किया जाता रहा है। या तो सरकार उन जवानों के वीरगति को प्राप्त होने की घोषणा कर दे, ताकि उनके परिवारजन रो-धोकर संतोष कर लें। अपने लाडलों की आत्मा की शांति हेतु धार्मिक कर्मकांडों से निवृत्त हो जाएं या फिर उनको वापिस लाने का कोई समयबद्ध कार्यक्रम तय किया जाए।
Source : Hindus Times
No comments:
Post a Comment